टांग
साहब बैठे सीट पे, घंटी देय बजाय ।
चपरासी आवे नहीं, गुस्सा ऐसा आय ।।
गुस्सा ऐसा आय, अभी तनख्वाह काढूँ ।
काट कर देख आज, टांग मैं तेरी काढूँ ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, कभी कोई नाऐंठे ।
खिड़की हो या गेट,पीठ कर कभी न बैठे ।
शब्दार्थ:: गुस्सा = क्रोध, ऐंठे = अकड़ना
भावार्थ: स्नायुरोग से ग्रस्त एक अधिकारी ने पूरे स्टाफ को स्नायु रोगी बना दिया । एक रविवार के दिन अपने आॅफिस में बैठते ही चपरासी को बुलाने के लिए घंटी बजाई । आलसी व निकम्मे चपरासी के नहीं आने पर साहब को ऐसा गुस्सा आया कि आजतोउसकी तनख्वाह काट दूँ ।यह सुन कर चपरासी ने कहा यदि तुम मेरी तनख्वाह काटोगे तो मैं तुम्हारी टांग काट दूंगा । इस प्रकार की नोंक-झोंक आये दिन होती ही रहती है ।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि सभी प्रसन्नचित्त रह सकते हैं, बस अधिकारी को चाहिए कि आॅफिस के नैऋत्य कोण में अपनी बैठक व्यवस्था ऐसी रखें कि खिड़की-दरवाजों की तरफ कभी पीठ न रहे । पीठ के पीछे सदैव ठोस दीवार होनी चाहिए ।
वास्तुशास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
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