कर्ज करे जब खेल
कोड़े मन पर यूँ पड़े, कर्ज करे जब खेल ।
घाणी चलीन बैल की, निकल गया सब तेल ।
निकल गया सब तेल, लगे हो शनिमहाराज ।
खुश रहे वर्षों तक, वे सब भारी नाराज ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, आय सब दौड़े-दौड़े ।
पूछते हाथ जोड़, रहे अब कितने कोड़े ।।
शब्दार्थ: कोड़े = चाबुक, घाणी = कोल्हू
भावार्थ:
कभी-कभी भवन-निर्माण में कुछ ऐसे दोष रह जाते हैं कि जिससे आय के स्रोत इतने कम हो जाते हैं कि घर-खर्च चलाने के लिए भी कर्जा लेना पड़ता है । जब कर्ज व ब्याज के कोड़े पड़ते हैं, तब मन ऐसा व्याकुल हो उठता है, जैसे बिना हीघाणी चले सब तेल निकला जा रहा हो । जो व्यक्ति वर्षों से गहरे आत्मीय थे वे शीघ्र ही भारी नाराज हो जाते हैं, तब स्थिति शनिमहाराज लगने से भी बदतर हो जाती है ।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि उन कर्जदारों को कोई भी उपाय नहीं सूझ रहा । देवी-देवता और ओझा लोगों की ओर कर्जदार घबराए हुए दौड़ रहे हैं । हाथ जोड-जोड़ कर पूछते हैं, हे प्रभु! बताओ हमने कर्ज के इतने हजार कोड़े तो खा लिए अब हमारे दुर्भाग्य में कितने कोड़े और शेष बचे हैं । ऐसे भूखण्डों का ढलान ईशान की ओर करने व उसे 90डिग्री से कम कोण बनाने से अर्थ संकट शीघ्र ही दूर हो जाएगा ।
वास्तुशास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
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