गली-गली
गली-गली मतलब बड़ा, नैऋत ऊँची जाय ।
जावे ईशान ढ़लती, ढल-ढल सिक्का आय ।।
ढल-ढल सिक्का आय, हो नव नंद का वासा ।
बजावे रोज-रोज, ढोल तन्दूरा ताशा ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, गलियाँ भी देखना तुम ।
फिर बनाना मकान, या फिरोगली-गली तुम ।।
शब्दार्थ: नैऋत्य = पश्चिम-दक्षिण भाग, ढल-ढल सिक्का आय = आर्थिक सम्पन्नता का तीव्रता से बढ़ना, नव नंद = सभी प्रकार के सुख
भावार्थ:
भूखण्ड के नैऋत्य कोण की गली सर्वोच्च हो, वहाँ से पूर्व एवं उत्तर की ओर आने वाली गलियाँ नीचे ढलती हुई होनी चाहिए । उत्तर एवं पूर्व से ईशान की ओर आने वाली गलियाँ भी इसी प्रकार नीचे ढलती हुई होनी
चाहिए अर्थात् ईशान सर्वाधिक नीचा व नैऋत्य सर्वोच होवे तो वहाँ नव नंद का वासा और सिक्कों की बरसातें होती रहेंगी । ढोल, तन्दूरा और ताशा जैसे विभिन्न वाद्य यंत्रों से वे प्रतिदिन खुशियां मनाते रहेंगे ।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि गलियों व रोड़ों को भी महत्त्व देते हुए भूखण्ड का चयन करना चाहिए वरना संकड़ीव विपरीत ढलान युक्त गलियां गली-गली भटकने के लिए मजबूर कर सकती हैं ।इस दोष का निवारण कठिन है । सामान्यतया एक व्यक्ति पूरे मोहल्ले की गली के ढलान को नहीं बदल सकता, इसलिये वास्तु के अन्य नियमों का विशेष ध्यान रखते हुए निर्माण-कार्य कराने से इस दोष का प्रभाव स्वतरू समाप्त सा हो जाएगा ।
वास्तुशास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
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