ऐसा होय मकान
आनंद मिले बस वहाँ, ऐसा होय मकान ।
पीछे ऊंचे शिखर हो, ईशान हो ढलान ।।
ईशान हो ढलान, गहरे सर नदी नाले ।
हो कुएं हेण्डपम्प, तू प्रातः काल नहाले ।।
कह ‘वाणी’ कविराज, अग्नि होवे नहीं बंद।
जा नैऋत्य ऊँचा, खुली वायु दे आनन्द।।
शब्दार्थ:सर = तालाब, शिखर = पहाड़ का सर्वोच्च भाग
भावार्थ:
वही भवन सर्वाधिक आनन्ददायक होता है जिसके पीछे ऊँचे-ऊँचे शिखर हों और ईशान कोण की ओर ढलान हो। गहरे-गहरे तालाब, नदी, नाले सब उधर ही बहते हों। आप यदि हैंड पम्प ट्यूबवेल आदि कुछ लगवाना चाहते हों तो वह भी ईशान के क्षेत्र में ही लगवाएं। वहाँ प्रात : काल स्नान करने से पूरा दिन अच्छा निकलता है।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि अग्निकोण में अग्नि पल भर के लिए भी बन्द नहीं हो। नैऋत्य कोण उच्च रहने व चारों ओर से खुली वायु आने से ऐसे आनन्द की प्राप्ति होती है मानो वह आनन्द भव नही हो।
वास्तुशास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
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